आंतरिक बल (भाग – १)-(प्रजापिता ब्रम्हाकुमारी ईश्‍वरीय विश्‍व विद्यालय)

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जगदीश भाई उपर अपने रहने लगा। मैं और जगदीश भाई इकट्ठे रहते थे। जगदीश भाई ऊपर अपने कमरे में सोते थे, मैं क्लास हॉल में नीचे सो जाता था और जल्दी उठकर स्नान आदि करके स्टेशन या बस स्टैण्ड भागना पड़ता था। साथ-साथ मैं नौकरी भी करता था। देहली में उस समय जितने भी सेन्टर थे, उन सब में मैं रहा हुआ हूँ। सबसे ज़्यादा समय रहा राजोरी गार्डन सेन्टर पर। सन् १९७० में मैंने नौकरी छोड़ दी क्योंकि मुझे मधुबन के लिए बुलावा आया। जगदीश जी के साथ हमारा अलौकिक बचपन से ही स्नेह रहा। वे बहुत हार्ड वर्कर (कठिन परिश्रमी) थे। उनको देख-देखकर हमें प्रेरणा मिलती रही जिससे हम भी उन जैसे हार्डवर्क करते थे। बाबा के अव्यक्त होने के बाद १९७० में दीदी और दादी ने मुझे मधुबन बुलाया तीन मास के लिए लेकिन वो तीन मास पूरे ही नहीं हुए, जब से आया तब से यहीं रह गया। उन दिनों मधुबन में ज़्यादा भाई लोग व नहा। में सेवा में इतना व्यस्त हो गया कि वापस जाने की याद ही नहीं आयी। जगदीश जी मेरे से बहुत सेवा लेते थे और हार्ड वर्क कराते थे लेकिन उतना ही मेरे प्रति उनका अन्तःस्नेह था। मेरे से उनका इतना स्नेह था कि उन्होंने ख़ास पासपोर्ट बनवाया मुझे रशिया भेजने के लिए लेकिन कुछ दिनों के बाद उन्होंने शरीर छोड़ दिया। उनके जाने के बाद रशिया जाने का मन नहीं बना, मैं गया नहीं। उनकी लेखनी बहुत जबर्दस्त थी। आज तक किसी ने भी उन जैसे साहित्य लिखा नहीं है और न लिख पायेगा। बाबा ने ऐसे ही उनको टाइटिल नहीं दिया था ’गणेश जी’। उनका सबके साथ स्नेह था। अपने साथ रहने वालों से काम खूब लेते थे लेकिन स्नेह भी उतना और ख़्याल भी उतना रखते थे। साथ में कहीं जाते थे तो खाने-पीने का, रहन-सहन का बहुत ख्याल रखते थे। जब भी हम शक्ति नगर सेन्टर पर जाते थे तो हर चीज़ का ख़्याल रखते थे। सबके साथ उनका व्यवहार बहत सम्मानपूर्ण और स्नेहपूर्ण रहता था। उनमें यह खुबी थी कि आपका वर्णन आपके सामने नहीं करेंगे, दूसरों के सामने करेंगे। मैं यह निश्चय से कहता हूँ कि जो एक बार उनके साथ रहेगा वह कभी अलौकिक जीवन में हार नहीं खायेगा, सेवा में न थकेगा, न। घबरायेगा।