जीवन चक्र

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जल-जल कर और तड़प-तड़प कर मैं अपने हाथों को मरोड़ रही हूँ। इसका मतलब है कि मैं पछता रही हूँ। क्यों पछता रही हूँ ? जो मेरे पति परमेश्वर हैं, जो मेरे प्रीतम हैं, उनसे मैं अलग हो गई हूँ और उनको ढूँढने के लिए मैं पागल हो गई हूँ। पागल होना यहॉं पर बाहर की दुनिया के पागलपन का ज़िक्र नहीं है। वह बता रही है कि इतनी कशिश मुझमें पैदा हो रही है, प्रभु से मिलने की कि मैं हर कष्ट उठाने के लिए तैयार हूँ। महापुरुष हमें बार-बार समझाते हैं कि हमें प्रभु से अलग हुए, प्रभु से बिछुड़े हुए लाखों-करोड़ों साल हो गए हैं और हमारी आत्मा एक योनि से दूसरी योनि में भटक रही है। वह चौरासी लाख जियाजून के चक्कर में लगी हुई है, उसमें फँसी हुई है, उसमें अटकी हुई है और उन योनियों में वह कष्ट ही उठाती रहती है। कर्मों के विधान के साथ-साथ उसके ऊपर काल का जो जाल है, वह बिछा रहता है। हमारी रूह अपने आप उस जाल से नहीं निकल सकती। जब तक हम उस जाल में फँसे रहेंगे, तब तक एक दुःख-दर्द के बाद दूसरा दुःख-दर्द हमारे साथ रहेगा। यहॉं पर बाबा फरीद जी हमें यही समझा रहे हैं कि जब हमें यह मालूम हो जाए कि जो हमारा असली रूप है, वह शारीरिक नहीं बल्कि आत्मिक है, तो फिर हममें प्रभु से मिलने की तड़प और भी जाग उठती है और इसी के बारे में आगे बता

तै सहि मन महि कीआ रोसु ॥ मुझु अवगन सह नाही दोसु ॥

यहॉं पर आत्मा परमात्मा से कह रही है कि हे प्रीतम! लगता है आप मुझ से रूठ गए हो। जब हमारा प्रियतम हम से रूठ गया हो, हम से बातचीत भी नहीं करता हो, तो हमें लगता है कि उसे गुस्सा आ गया है और हमें समझ में नहीं आता कि हम कैसे उस अवस्था में पहुँचें, जिसमें कि हम पहले थे। यहॉं पर उसी के बारे में बता रहे हैं कि ’हे प्रीतम! तुम मुझसे रूठे क्यों हो, तुम मुझसे नाराज़ क्यों हो? जिसके कारण तुम रूठे हो, उसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। जो अवगुण हैं, जो दोष हैं, वे मुझ में हैं।’ तो वे उस अवस्था की बात कर रहे हैं, जहॉं पर इंसान को यह मालूम हो जाता है कि उस परमेश्वर के ज़रिये ही यह सारी सृष्टि चल रही है, कर्तापुरुष भी वही है, उसने ही हमें सँभालना है। उसके हुक्म से हर एक पत्ता हिलता है, उसके हुक्म से ही हमारी जिंदगी में उतार चढ़ाव आते हैं। तो वह अवस्था, जिसके बारे में गुरुवाणी में आया है, ’तेरा भाणा मीठा लागे,’ उस अवस्था की यहॉं बात कर रहे हैं कि हमें एक ऐसी जिंदगी जीनी है, जिसे हम प्रभु की मर्जी से जीयें। हम यह न सोचें कि हम गुणों से भरपूर हैं, हम यह जान लें कि हम इंसान तो ग़लतियॉं करते ही रहेंगे और हर समय प्रभु से उसकी दया-मेहर, उसकी कृपा मॉंगते रहेंगे। आगे बाबा फरीद जी फ़रमा रहे हैं : तै साहिब की मै सार न जानी । र जोबनु खोइ पाछै पछुतानी ॥ यहॉं वे कह रहे हैं कि हे परमात्मा! मैंने आपकी कद्र नहीं जानी, आपको मैंने पहचाना नहीं। जो मेरी जवानी का समय था, वह मैंने गँवा दिया। मैंने अपना ध्यान आपकी ओर नहीं किया और अब मैं पछता रही हूँ। हम अपनी जिंदगी को देखें, जब हम बच्चे होते हैं तो यहॉं के तौर-तरीके सीखने में, रीति-रिवाज़ सीखने में, पढ़ाई-लिखाई करने में समय निकल जाता है। जब बड़े होते हैं, तो किसी कार्य में लग जाते हैं, चाहे नौकरी करें, चाहे व्यापार करें और जब हमारी शादी हो जाती है, बाल-बच्चे हो जाते हैं तो उनके पालन-पोषण में लग जाते हैं और कोशिश यही करते हैं कि बच्चों को अच्छे तरीके से ीशींींश्रश (आबाद) कर सकें और तब तक हम बुढ़ापे की अवस्था में पहुँच जाते हैं। यहॉं पर बाबा फ़रीद जी हमें समझा रहे हैं कि अगर हमने अपनी जवानी का समय सिर्फ घर गृहस्थी में या जीने के साधन इकट्ठे करने में गँवा दिया,

(कृपाल आश्रम, अहमदनगर)