आंतरिक बल (भाग – 1)

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वे कहते थे कि ज्ञानी का एक यह भी लक्षण है कि अगर कोई उसकी कमीकमज़ोरियॉं सुनाये तो सुनेगा भी और उनके बारे में सोचेगा भी। वो यह नहीं कहेगा कि मैं भी तो अनुभवी हूँ, मैं क्या कम हूँ। अगर किसी में बुद्धि का, ज्ञान का, योग का या सेवा का अभिमान आ गया तो समझ लो कि उसकी प्रगति रुक गयी, उसकी गिरावट शुरू हो गयी। इसलिए अपनी मनोभावना अच्छी बनाओ। ऐसे हम बहनों को भाई साहब समझाते थे।

बाबा के महावाक्यों पर अचल विश्वास – बाबा पर और बाबा के महावाक्यों पर अचल विश्वास स्थिर रहने के लिए हम बहनों को कई बातें सुनाते थे। कहते थे, बाबा का एक-एक महावाक्य लाखों-करोड़ों रुपयों का है। इस ज्ञान से आत्मा का अध:कार। मिट जायेगा, जीवन पवित्र और श्रेष्ठ बन जायेगा, मनुष्य देवता बन जायेगा । भगवान सर्वज्ञ है, सत्य है, उसका कोई भी महावाक्य ग़लत नहीं हो सकता। मनुष्य से कोई ग़लती हो सकती है; वो भगवान है, उससे कोई भी गलती हो नहीं सकती। वह सर्व का कल्याणकारी है, शुभकारी है। हमेशा अपने जीवन में यह गॉंठ बॉंधकर रखो कि इस संगमयुग में हमें जो ज्ञान मिला है, यही सत्य ज्ञान है, उसके अलावा और कोई ज्ञान सत्य हो नहीं सकता। ऐसे ज्ञान पर पूरा निश्‍चय रहना चाहिए।

इस ज्ञान में आने से पहले मैं मॉं-बाप के साथ बहूत भक्ति करती थी। उनके साथ तीर्थों पर भी जाती थी। मेरे मन में एक ही आशा थी कि अगर भगवान मुझे मिले, मैं उनसे पूछूगी कि आपने संसार क्यों बनाया ? पिता जी हम बच्चों से बहुत दान-पुण्य करवाते थे। वे गरीबों को, भिखारियों को बहुत दान-पुण्य करते थे तो वही संस्कार उन्होंने हम बच्चों में भी डाल दिये। सन 1982 में मुझे बाबा का ज्ञान मिला। ज्ञान-योग करते हुए मुझे एक सप्ताह ही हुआ था, तब भाई साहब को पहली बार देखा सेन्टर पर। वे किसी भाई से छपाई के बारे में बातें कर रहे थे। उस समय मुझे यह पता नहीं था कि ये संस्था के एक बड़े भाइ हैं । स़फेद कपड़े पहने हुए थे, बाबा का बैज लगा हुआ था। मैंने उनका हाथ जोड़कर नमस्ते कहा। तब उन्होंने कहा, आप ओम शान्ति क्यों नहीं कहते? चक्रधारी दीदी कुमारियों की क्लास कराती थी। एक दिन भाई साहब वहा आये। उस समय हम तीन कुमारियॉं थीं। भाई साहब ने पूछा, आप लोगों का क्या लक्ष्य है ? चक्रधारी दीदी की तरफ़ देखते हुए मैंने कहा, मुझे इन जैसा बनना है और यहॉं सेन्टर पर रहकर सेवा करनी है। दूसरी बहन ने कहा, मुझे मुंबई में रहकर सेवा करनी है। तीसरी ने कहा, मुझे मधुबन में रहना है। फिर भाई साहब ने मेरे से पूछा, दूसरी दो तो अलगअलग स्थान पर रहकर सेवा करना चाहती हैं लेकिन आपने यह क्यों कहा कि मैं शक्ति नगर में रहकर सेवा करूँगी? मैंने कहा, भाई साहब, मैं जब भी आपको देखती हूँ, आप मुझे गणेश के रूप में दिखायी पड़ते हैं। जहॉं विघ्नविनाशक गणेश जी रहते हैं वहॉं हर बात में सफलता हुई ही पड़ी है। चक्रधारी दीदीने ही हमें उनका परिचय करवाया कि ये बड़े भाई हैं, साहित्य लिखते हैं आदि-आदि। हर महीने के एक बुधवार को भाई साहब कुमारियों की क्लास कराते थे। हर शुक्रवार को भाइयों की क्लास होती थी।

(प्रजापिता ब्रम्हाकुमारी ईश्‍वरीय विश्‍व विद्यालय)